एक औरत थी. उसका पति उसपर बहुत अत्याचार करता था, उसका जीना दुश्वार कर रखा था. एक दिन वह औरत उस हिंस्र पति के चंगुल से भाग निकली. अपने साथ अपने ८ बच्चो को भी ले लिया. औरत को पता नहीं था की आगे वह क्या करेगी, कैसे अपने बच्चों को पालेगी. पर कहते हैं ना माँ से बढ़कर अपने बच्चों का ख्याल कोई नहीं रख सकता. एक छोटी सी झोपड़ी में वह अपने बच्चों के साथ रहने लगी. दिन बहुत मुश्किल से कट रहे थे. जैसे तैसे वह औरत अपने बच्चों के खाने का इंतेज़ाम करती. उन्हें पास के एक म्युनिसिपल स्कूल में भी पढ़ने भेजा ताकि बच्चे उसकी तरह गरीबी में ज़िंदगी ना गुज़ारे.
धीरे धीरे बच्चे बड़े होने लगे. औरत वक़्त से पहले ही बूढी हो चली थी. शरीर को खाना और आराम नसीब ना हो तो शरीर जल्दी बूढ़ा और कमज़ोर हो ही जाता है. बड़े ४ बच्चे अब कमाने लगे थे. घर की हालत सुधर रही थी. हालाँकि अभी भी पैसों को लेकर, जिम्मेदारिओं को लेकर घर में कभी कभार क्लेश हो जाता. एक दिन ऐसा भी आया की सारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गए.
अब कुछ बच्चों को अपनी माँ की गरीबी और जर्जर हालत से शर्म आने लगी. वे अपनी माँ को कहीं लेकर जाना नहीं चाहते थे. डरते थे की लोग उनपर हसेंगे, उनका मज़ाक उड़ाएंगे. कुछ बच्चों को माँ पर दया आई और उन्होंने उसका ख्याल रखना शुरू किया. कुछ बच्चे माँ को छोड़कर चले गए क्योंकि उनको अब माँ का घर छोटा और गन्दा लगने लगा. पर माँ तो माँ थी, जब भी ज़रूरत पड़ी उसने अपने बच्चों को सहारा दिया. दुनियावालों ने माँ को कहा की तुम्हारे बच्चों को तुमसे घृणा होती है, फिर भी तुम क्यों उनको सहारा देती हो? औरत हंसकर कहती, “आखिर मैं माँ जो ठहरी. जैसे भी हैं आखिर हैं तो मेरे ही बच्चे. वे भले ही मेरी निंदा करे, पर मैं तो उन्हें दुत्कार नहीं सकती ना.”
आज उस माँ की उम्र ७१ साल की हो गई है. उसकी हालत अच्छी नहीं है. अभी उसके बच्चों को उसकी देखभाल करनी चाहिए ना की उसे दुत्कारना या उसकी बुराई करनी चाहिए.
इस औरत की कहानी किसी और की कहानी से मिलती जुलती है शायद.
अरे, कहीं भारतमाता की कहानी से तो नहीं?